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हम जन्मीं हैं रसातल में

हम जन्मीं हैं रसातल में हमने शत्रु के लिए भी सोचा हम होते इसकी जगह तो यही करते शायद ईश्वर ने नहीं सोचा  वह होता हमारी जगह तो क्या कर...

Thursday, 22 September 2016

केदार स्मृति सम्मान बांदा 2016







उसके बिना

उसके बिना

अब और लड़ा नहीं जाता मुझसे तुमसे
अब और गुरेज नहीं मुझे तुम्हारी बेसिर पैर की बातों से
मैंने कल ही जाना है कि हमेशा नहीं रहोगी मेरे साथ
सबकी माँएं मर जातीं हैं एक दिन

बेतरतीब हो गयी हैं तुम्हारी मांसपेशियाँ
और याददाश्त
शायद हड्डियाँ घिसने से कुछ और छोटी हो गयी हो
बाल भी कहीं हल्के कहीं थोड़े कम हल्के हैं
साँस लेती हो
तो दूर बैठी भी सुन लेती हूँ घरघराहट
फिर भी जब जाओगी
तब मैं
रेशा रेशा बिखर जाऊँगी
तुम्हारे बिन

रात भर मैं तुम्हारे छोटे छोटे भरे होंठों
के गीले चुंबन चिपकाती रही
अपनी हथेली से माथे और गालों पर   
जो पोंछ कर रख दिये थे मैंने
झुँझला कर एक दिन हड़बड़ी में
मुझे हमेशा खला कि
तुम और माँओं जैसी नहीं थीं
साधारण और  शांत
तो क्यों तुम माँ ही निकलीं
सब माँओं सी 

जानती थी कि
माँ का मरना बहुत बुरा होता है
शायद दुनिया में सबसे बुरा
नहीं जानती थी
कि यह अपनी देह से बिछड़ना था
मैं कितना अधिक जानती हूँ
इस दुनिया को तुम्हारे बनिस्बत
तुम कितना कम जानती हो इन दिनों
रास्ते नहीं मालूम ज़्यादा कहीं के
कितना डरती हो हर बात से आज कल
मरने से भी
फिर भी दूसरी दुनिया की देहरी पर तुम्हें
अकेला भेज दूँगी मैं
बिलकुल अकेला

रुग्ण दुर्बल और भ्रांत ।  

समिधा

हम उस यज्ञ की समिधा बनना चाहते हैं......जिसके पुरोहित.....इतिहास में पहली बार.....हमारे पुरखे नहीं हैं। यह क्रांति है सामाजिक न्याय नहीं .....हमारे घुटने और पुट्ठे छिलेंगे स्थिति परिवर्तन में..... तो हम कराहेंगे ....चीखेंगे नहीं (हमें कराह लेने देना). हम देखेंगे......... किंचित अन्याय होते भी तो ....सह लेंगे. कम से कम हमारे ...नहाये धोये ....वर्दी पहने......उत्कंठा से उमगते बच्चों से ...तुमने चपरासी और जमादार का काम नहीं लिया.....नहीं धकियाया उन्हें कक्षा से बाहर .......नहीं बैठाया उन्हें .......ठंडी निर्दयी ज़मीन और मानवता की सीमारेखा  पर.....तुम्हारा अग्रिम आभार.

पुनश्च : तुम्हारे छाले टीसते हैं मेरे तलवों और दिल में. 

दिलजली कविताएँ

रोटियाँ बना रही थी वह दिन रात अपने दिल ओ दिमाग़ में, गोल, टेढ़ी मेढ़ी, कच्ची पक्की। जीने के सब हुनर और होशियारी पर सूखे आटे सा धुंधलका छाया रहा ताउम्र। जुनून के सीने में दहकती लौ ज़िन्दगी का कच्चा अलाव भक्क से सुलगा गयी। जिसके लिए बनायीं रोटियाँ वह कहता रहा क्यों बनाती हो ज़रूरत क्या है? दुनिया कहती रही और कोई काम नहीं तुम्हें? 
वह कहती रही पहले दुनिया में कोई और तो बनाये ऐसी टेढ़ी- मेढ़ी, कच्ची पक्की, दिलजली रोटियाँ, तब तो बनाना बंद करूँ। वह पूछता है क्यों लिखती हो ऐसी टेढ़ी मेढ़ी दिलजली कविताएँ.... ज़रूरत क्या है? वह फिर वही जवाब देती है।

निहत्थी औरतें

निहत्थी औरतें

रूस चीन जापान जर्मनी और
दुनिया के तमाम देशों में
जहाँ के पुरुष
दूर देश विजय पताका फ़हराने गए थे
दुश्मन की फ़ौजें जब घुसीं तो
उन्हें पता था कि औरतें अकेली हैं
उन्हें पता था कि औरतें कोमल हैं
उन्हें पता था कि औरतें निहत्थी हैं

मैं सोचती हूँ कि क्या कर रहीं थीं वे औरतें जब
उन्मादी पुरुषों ने भारी बूटों के साथ नगर में प्रवेश किया
क्या वे घर के बुज़ुर्गों की देखभाल कर रहीं थीं
अपने नवजात शिशुओं को सीने से लगा सुला रहीं थीं
धुले कपड़े रस्सी पर सुखा रहीं थीं
आँच से लाल हुए संतुष्ट मुख से खाना बना रहीं थीं
या दूर देश गए पति की मंगल कामना कर रहीं थी

जब
खींच निकालीं गयीं घरों से
अलग की गयीं लाचार माँ बाप
रोते हुए शिशुओं से 
जब हाँकी गयीं रेवड़ की तरह और
यातना की चरम सीमा पर मार दीं गयीं
क्योंकि इंसान जैसी नहीं दिखतीं थीं
वे निहत्थी औरतें
मैं अपने कान ढँक लेती हूँ
जब दुनिया की न जाने कितनी भाषाओं मे
एक ही चीत्कार
एक ही क्रंदन
एक ही विलाप
सुनती हूँ

मैं सोचती हूँ उस दिन के बारे में जब
उनके पुरुष
विजयी या पराजित लौटे होंगे
अपने नगर
अपने घर
और उन्होने देखे होंगे
नीले काले हुए निर्वस्त्र
बजबजाते शवों के ढेर
तो अकस्मात् याद आयी होंगी उन्हें
दूर देशों की 

निहत्थी औरतें । 

तरुण लड़की

तरुण लड़की

1.

तरुण लड़की
रिक्शा में साथ बैठी है
कई जोड़ी आँखें निर्दोष मुख पर उठतीं
और टाल जाती हैं दोबारा देखना
या झुक जातीं हैं अनायास
मेरी राहत कलेजे में ठंडी होती है
'दुनिया अच्छी है अभीहैं?
"नहीं" कहते हैं निष्कंप होंठ
'क्या कहा?'
"कहा कि नहीं अच्छी है दुनिया"
काँप जाती है मेरी राहत
इसने कब जाना यह?

2.

लड़की
घुटनों पर ठुड्डी टिकाये
देखती है बगुलों की पांत एकटक
उस गुनगुनी होती गरम साँझ
"चिड़िया बनेगी?"
"नाहलड़की ही बनूँगी।"
झुटपुटा होने तक 
हम उड़ते बगुले देखते हैं चुपचाप
साथ-साथ।


3.

यह लड़की
हमारी माँ की तरह गमकती है
जब मेरी कातरता को अपनी कृश बाँहों में लपेट
गुनगुने पेट से सटा लेती है
यही धुले बेसन सी महक
माँ के मेरी कोख तक आने का पुल है।

4.

मैं कि ब्याह से मिलने वाले
सुख, सुरक्षा समझाती हूँ
वह कि मृणाल उँगलियों से
मेरी पलकों का सब नमक पोंछती 
हाथों और कलेजे की दरारों को
छोटे गुलाबों से चूम भर देती है 
समझाती है पुरखिन की तरह
लड़कियों को शादी नहीं करनी चाहिए"  

5.

तरुण लड़की !!
तुम्हारी सुंदरता आँकने के लिए
मैं इस दुनिया की सबसे नामुनासिब इंसान हूँ
मेरी पुतलियों में भगवान ने
चिपका दी थी तुम्हारी
सबसे पक्षपातपूर्ण तस्वीर
एक शाम
ठीक चार बजकर चौदह मिनट पर
मुझसे और मत पूछना यह दुष्कर प्रश्न
हो सकता है मेरा सच भी बहुत झूठा हो दरअसल। 

6

मैं इस दुनिया में
सबको प्रेममय देखना चाहती हूँ
सिवाय तुम्हारे
नहीं है मेरा आंचल इतना बेहिस
जो समेट सके तुम्हारी सिसकियाँ
भर सके तुम्हारे ज़ख्म, नहीं है यह ताब मेरी छाती में
यूंही कबूतरी बनी रहो मेरे पालने की
नहीं चाहती हूँ

तुम प्रेम करो किसी भी दिन । 

पिछले चार दिन.....

        पिछले चार दिन.......

पलकों से
आँखों की डिबिया में
वह सब
नमक बटोर लूँगी
जो मैंने तुम्हारी याद में ज़ाया किया है
दादी कहती थीं
यह सज़ा नर्क में दी जाती है 
कि नमक फेंका नहीं करते।

खगोलविज्ञान पढ़ूँगी
हेनरी गिकलास की किताबों में ढूँढ़ ही लूँगी  
कि चाँद तारे असल में कितने बदसूरत होते हैं
कितने खुरदुरे, आभाहीन और निर्जीव
वे कुछ और थे
जो रोज़ तुम्हारे साथ मेरे ख़्वाबों में चले आते थे
बरस पड़ते थे मेरे करवटें बदलते तकिये पर
सो रहते थे मेरी बेकली के साथ
बाहक़।

बक़ौल सक्सेना सर
दिल खून पम्प करने की एक मशीन भर है
तो ये दर्द कहाँ होता है रह रह कर
तुम भी न, ऐसा ब्लौकेज हो गए हो
कि अब कोई पेसमेकर काम नहीं करेगा
कोई बायपास नहीं ।

मेरी सबसे अच्छी सहेली रेल से हाथ हिलाती है 
इस बार छुट्टियों में उसे भूल जाना
मेरे हाँकहने से पहले
चाँद से एक रेल उतर आती है
एन उसी प्लेटफ़ौर्म पर
जहाँ तुम्हारे नाम का बोर्ड लगा है।
जो तुमने नहीं पाया
तुम भी तो माँगते हो वही दिन रात
मैं बस पांच गुलाबी नाखून माँगती हूँ
पांच पोरुए उनसे चिपके
एक दिल उस कलाई में धड़कता
एक जान उस हथेली पर रखी


तुमने कहा था कि और भी ग़म हैं जमाने में.........
और ज़िंदा रहने की कोशिश में जमाने के वही ग़म ढूँढ रही हूँ आजकल
कि कोई तो बात होती होगी इन ग़मों में
जो भारी पड़ जाते हैं अचानक एक दिन

सालों, महीनों, दिनों, रातों, लम्हों, मुद्दतों, ज़िंदगी पर