पिछले
चार दिन.......
पलकों से
आँखों की डिबिया में
वह सब
नमक बटोर लूँगी
जो मैंने तुम्हारी याद में ज़ाया किया
है
दादी कहती थीं
यह सज़ा नर्क में दी जाती है
कि नमक फेंका नहीं करते।
खगोलविज्ञान पढ़ूँगी
हेनरी गिकलास की किताबों में ढूँढ़ ही
लूँगी
कि चाँद तारे असल में कितने बदसूरत
होते हैं
कितने खुरदुरे, आभाहीन
और निर्जीव
वे कुछ और थे
जो रोज़ तुम्हारे साथ मेरे ख़्वाबों में
चले आते थे
बरस पड़ते थे मेरे करवटें बदलते तकिये
पर
सो रहते थे मेरी बेकली के साथ
बाहक़।
बक़ौल सक्सेना सर
दिल खून पम्प करने की एक मशीन भर है
तो ये दर्द कहाँ होता है रह रह कर
तुम भी न, ऐसा
ब्लौकेज हो गए हो
कि अब कोई पेसमेकर काम नहीं करेगा
कोई बायपास नहीं ।
मेरी सबसे अच्छी सहेली रेल से हाथ
हिलाती है
‘इस
बार छुट्टियों में उसे भूल जाना’
मेरे ‘हाँ’ कहने
से पहले
चाँद से एक रेल उतर आती है
एन उसी प्लेटफ़ौर्म पर
जहाँ तुम्हारे नाम का बोर्ड लगा है।
जो तुमने नहीं पाया
तुम भी तो माँगते हो वही दिन रात
मैं बस पांच गुलाबी नाखून माँगती हूँ
पांच पोरुए उनसे चिपके
एक दिल उस कलाई में धड़कता
एक जान उस हथेली पर रखी
तुमने कहा था कि और भी ग़म हैं जमाने
में.........
और ज़िंदा रहने की कोशिश में जमाने के
वही ग़म ढूँढ रही हूँ आजकल
कि कोई तो बात होती होगी इन ग़मों में
जो भारी पड़ जाते हैं अचानक एक दिन
सालों, महीनों, दिनों, रातों, लम्हों, मुद्दतों, ज़िंदगी
पर
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