रोटियाँ बना रही थी वह दिन रात अपने दिल ओ दिमाग़ में, गोल, टेढ़ी मेढ़ी, कच्ची पक्की। जीने के सब हुनर और होशियारी पर सूखे आटे सा धुंधलका छाया रहा ताउम्र। जुनून के सीने में दहकती लौ ज़िन्दगी का कच्चा अलाव भक्क से सुलगा गयी। जिसके लिए बनायीं रोटियाँ वह कहता रहा क्यों बनाती हो ज़रूरत क्या है? दुनिया कहती रही और कोई काम नहीं तुम्हें?
वह कहती रही पहले दुनिया में कोई और तो बनाये ऐसी टेढ़ी- मेढ़ी, कच्ची पक्की, दिलजली रोटियाँ, तब तो बनाना बंद करूँ। वह पूछता है क्यों लिखती हो ऐसी टेढ़ी मेढ़ी दिलजली कविताएँ.... ज़रूरत क्या है? वह फिर वही जवाब देती है।
वह कहती रही पहले दुनिया में कोई और तो बनाये ऐसी टेढ़ी- मेढ़ी, कच्ची पक्की, दिलजली रोटियाँ, तब तो बनाना बंद करूँ। वह पूछता है क्यों लिखती हो ऐसी टेढ़ी मेढ़ी दिलजली कविताएँ.... ज़रूरत क्या है? वह फिर वही जवाब देती है।
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