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Wednesday, 21 September 2016

खत्म होना लाज़मी था

खत्म होना लाज़मी था

तुम्हारा खत्म होना लाज़मी था
लाज़मी था कि मुझे नहीं आते थे नए सपने
मेरी खिड़कियों के पर्दों पर
तुम्हारे ही बसंत के फूल चस्पाँ थे अब तक
कि मैं पुराने चेहरों से कतराती थी
और नए दिलचस्प नहीं लगते थे मुझे
मुझे सुख दुख में फर्क ही नहीं लगता था
खट्टे मीठे, रंगीन बेरंग में भी
तुम्हारा खत्म होना लाज़मी था।

लाज़मी था कि मुझे आईने की फ़राखदिली खलती थी अब
मुझे रुखसत के दिन का स्क्रीन सेवर पसंद नहीं था
ज़िंदगी बेशकीमती लगने लगी थी 
और तुम्हारे बहाने बड़े खोखले
मैंने जान लिया था कि लोग पुरखुलूस और सच्चे भी हैं

तुम्हारी आँखों में सर्द बिल्लौरी काँच देख लिए थे । 

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